अहं-शून्यता की झलक : ओशो

एक सुबह ! अभी सूरज भी निकला नहीं था और एक मांझी नदी के किनारे पहुँच गया था। उसका पैर किसी चीज़ से टकरा गया। उसने झुककर देखा। पत्थरों से भरा हुआ एक झोला पड़ा था। उसने अपना जाल किनारे रख दिया और सुबह के सूरज के उगने की प्रतीक्षा करने लगा। सूरज उग आया। वह अपना जाल फेंके और मछलियाँ पकडे। वह जो झोला उसे पड़ा हुआ मिला था, जिसमें पत्थर थे। वह एक-एक पत्थर निकाल कर शांत नदी में फेंकने लगा। सुबह के सन्नाटे में उन पत्थरों के गिरने की आवाज़ उसे बड़ी मधुर लग रही थी। उस पत्थर से बनी लहरें उसे मुग्ध कर रही थी। वह एक एक करके पत्थर फेंकता रहा। 

                               धीरे धीरे सुबह का सूरज निकला। रौशनी हुई। तब तक उसने झोले के सारे पत्थर फेंक दिए थे। सिर्फ एक पत्थर उसके हाथ में रह गया था। सूरज की रौशनी में देखते ही जैसे उसके ह्रदय की धड़कन बंद हो गयी। सांस रुक गयी। जिसे उसने पत्थर समझ कर फेंक दिया था, वे हीरे-जवाहरात थे। लेकिन अब तो अंतिम हाथ में बचा था और वह पूरे झोले को फेंक चुका था। वह रोने लगा, चिल्लाने लगा। इतनी सम्पदा उसे मिल गयी थी की अनंत जन्मों के लिए काफी थी परन्तु अँधेरे में, अनजान, अपरिचित, उसने सारी सम्पदा को पत्थर समझकर फेंक दिया था।

                            लेकिन फिर भी वो मछुआ सौभाग्यशाली था, क्योंकि अंतिम पत्थर फेंकने से पहले ही सूरज निकल आया था और उसे दिखाई पड़ गया था की उसके हाथ में हीरा है। 

                            साधारणतयाः सभी लोग इतने सौभाग्यशाली नहीं होते। जिंदगी बीत जाती है, सूरज नहीं निकलता, सुबह नहीं होती, सुबह की रौशनी नहीं आती। और सारे जीवन के हीरे हम पत्थर समझ कर फेंक चुके होते हैं। जीवन एक बड़ी सम्पदा है लेकिन आदमी सिवाय उसे फेंकने और गंवाने के कुछ भी नहीं करता है। जीवन क्या है यह पता भी नहीं चल पाता और हम उसे फेंक देते हैं। जीवन में क्या छिपा है, कौन से राज, कौन से रहस्य, कौन सा स्वर्ग, कौन सा आनन्द, कौन सी मुक्ति, उन सब का कोई अनुभव भी नहीं हो पाता और जीवन हमारे हाथ से रिक्त हो जाता है।  




श्रोत : ओशो प्रवचन
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